उपोद्घात
यह इक्कीसवीं शती का प्रारंभ है। पूर्व और पश्चिम की विकास यात्रा में नव उदारीकरण की लहलहाती फसल के बीच इंच इंच घिसटती मानवता । उद्यमिता के नए प्रारूपों के बीच व्यष्टि की बंधक होती हनक । बाज़ार भरे हुए, ग्राहकों की जेबें टटोलते, भीड़ के बीच आदमी का अकेलापन । समाज जिसे बहुध्रुवीय, बहुलतावादी होने का मुगालता था एकरूपता की मार से कराहता हुआ ।
धर्म और नस्ल के नए नए प्रयोग हित अनहित के प्रश्नों को निबटाते हुए। सत्ता के लिए इनका सटीक उपयोग मानवमन के बीच भयानक द्वन्द्वका सृजन करता हुआ । सत्ताधारी की भाँति पंथों के अगुवा भी ताल ठोंक कर जन-जन के बीच लकीर खींचते हुए। लहू-लुहान शाकुनपाँखी की भाँति सहा खीझा आम जन । बहेलिए छुट्टा घूमते हुए लक्ष्य साधने में मग्न । 'मा निषाद ' का उद्घोष भी प्रभावहीन । जन आक्रोश सार्थक दिशा की तलाश में। आशा और निराशा के बीच जूझते युवाजन ।
पंछी की भाँति उड़ता मनुष्य पड़ोसियों से समरस न हो पाने के लिए अभिशप्त । सत्ता, शक्ति और वैभव के लिए कैसे कैसे नृत्य? पर समरसता, सदभावना की भी एक अन्तर्धारा अविरल बहती जन मानस को सींचती चलती। यही तो हर युग की कथा है। |
इस उपन्यास में उत्तर भारत का जो बिम्ब उभरता है वह तराइन के प्रथम युद्ध (1191 ई०) से खोख्खरों द्वारा झेलम तट पर सुल्तान शहाबुद्दीन गोरी की हत्या ( 15 मार्च, 1206 ई०) के बीच का है। इसके पूर्व अलबरूनी भारत के बारे में बहुत कुछ लिख चुके थे। नाथों और सिद्धों की बानियों की अनुगूँज सुनाई पड़ती थी । बौद्ध विहारों की आभा किंचित फीकी पड़ चुकी थी । वाममार्गी सक्रिय थे। चिश्तिया सूफी जगह-जगह संगीतमय आराधना में रत हो रहे थे। श्री हर्ष, जयानक, चंद, केदारभट्ट अपनी रचनाओं से समाज को उद्वेलित कर रहे थे। जागनिक का सैरा जनमानस में प्रसिद्धि पा चुका था । चाहमान, गहड़वाल, चन्देल, कलचुरि आपसी द्वन्द्व के बीच विद्यमान थे ही, बंगभूमि में सेनवंश के लक्ष्मणसेन की उपस्थिति कम महत्त्वपूर्ण न थी । व्यापारी स्थल मार्ग से आते जाते । हेरात, ग़ज़नी, गोर तथा मध्य एशिया से सौदागरों का आना जाना लगा रहता ।
ग़ज़नी के शासक महमूद ने निरन्तर उत्तर भारत पर आक्रमण की योजनाएँ बना, लूट-पाट की। शहाबुद्दीन ने अपने सिपहसालारों की सहायता से एक एक कर उत्तर भारत के राजाओं को परास्त किया। नायकी देवी और पृथ्वीराज से हारे भी पर अपने अभियान से डिगे नहीं । फलतः एक नई संस्कृति, एक नए धर्म से इस धरती पर टकराव हुआ। आज की अनेक समस्याओं का स्रोत इसी काल की घटनाओं में देखा जा सकता है। जिन प्रश्नों से आज सम्पूर्ण मानवता जूझ रही है, वे प्रश्न उस काल में भी उतनी ही शिद्दत के साथ महसूस किए जा रहे थे । इसीलिए एक काल खण्ड के माध्यम से यह शाश्वत प्रश्नों की कथा है।
'कंचनमृग' जिन लोगों ने पढ़ा, सभी ने तराइन के निष्कर्षों तक लें जाने की बात की। यह उपन्यास इसी का एक प्रयास है। इसे आज जनमानस को सौंपते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है ।
19 मई, 2004 डॉ. सूर्यपाल सिंह
ज्येष्ठ अमावस्था 2061 विक्रमी संवत्
1. मा निषाद
संजू प्रातः घुड़सवारी से लौटी। वस्त्र बदले । मधु मिश्रित दुग्ध का प्रातराश लिया। अध्ययन के लिए उपाध्यायी के सम्मुख उपस्थित हुई। उन्होंने वाल्मीकि रामायण का यह श्लोक सस्वर पढ़ा और दो बार संजू से पढ़वाया-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत् क्रौञ्च मिथुनादेकमवधीः काम मोहितम् ।।
संजू के उच्चारण और पाठ को सुनकर वे संतुष्ट हुईं। भाषा में अनुवाद बताया- 'निषाद ! तुझे कभी भी शान्ति न मिले क्योंकि तूने इस क्रौञ्च के जोड़े में से एक की, जो काम मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराध के ही हत्या कर डाली ।'
पाठ और अर्थ समझते संजू भावुक हो गई। पूछ बैठी, 'महनीया, निषाद ने काम मोहित क्रौञ्च को क्यों मारा? उसे यह छोटी सी बात क्यों नहीं समझ में आई? मुझे तो माँ ने बहुत पहले ही बता दिया था कि संसर्ग रत जोड़े को कभी छेड़ना नहीं चाहिए।'
'निषाद के संस्कार हम लोगों से भिन्न हैं संजू । उसे इन संस्कारों के बीच पलने का अवसर नहीं मिला', उपाध्यायी ने व्याख्या करने की कोशिश की। 'यदि वह अवसर से वंचित रहा तो मुनिवर का शाप?" संजू की जिज्ञासा शान्त नहीं हुई ।।
'कर्म का भोग तो भोगना ही पड़ता है', उपाध्यायी बोल पड़ीं।
"क्रोञ्च यदि काम मोहित न होता तो क्या निषाद द्वारा उसकी हत्या उचित होती?" संजू की जिज्ञासा बढ़ती ही गई।
'उचित तो न होती पर काम मोहित को मारना तो अक्षम्य है।' उपाध्यायी की आँखें संजू पर टिक गईं।
“तब तो यदि युवक युवती परस्पर सहमति से परिणय सूत्र में बँधना चाहें तो समाज को उसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।'
"उचित अनुचित का विचार तो करना पड़ेगा न ।'
“यही बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। क्रौञ्च जोड़े के प्रति सद्भावना और मानवी जोड़े के प्रति किन्तु......... परन्तु ।'
‘तेरी तीक्ष्ण बुद्धि ही इसका हल ढूँढ़ेगी। पर मैं जो बताना चाहती हूँ वह तो सुन ।'
"क्या आर्ये?"
'क्रौञ्च को तड़पते देख महर्षि वाल्मीकि के अन्तर से जो वाणी 'मा निषाद' के माध्यम से निकली उससे श्लोक का जन्म हुआ। महर्षि स्वयं चकित थे । अपने शिष्य भारद्वाज से उन्होंने कहा, 'तात, शोक से पीड़ित मेरे मुख से जो वाक्य निकल पड़ा हैं, यह चार चरणों में आबद्ध है। इसके प्रत्येक चरण में बराबर अक्षर हैं। इसे वीणा की लय पर गाया जा सकता है। अतः इसे श्लोक रूप ही होना चाहिए।' भारद्वाज ने भी उनका समर्थन किया। देख, श्लोक रचना का प्रारंभ किन कारुणिक स्थितियों में हुआ । 'सच कहती हैं आप मेरा हृदय स्वयं उद्वेलित हो उठा है।'
"तू भी श्लोक रचेगी क्या?'
'हो सकता है।'
'यह तो शुभ लक्षण है। तेरी रुचि काव्य रचना में हो, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? तुझे अवकाश दे रही हूॅं। अपने कक्ष में बैठकर श्लोक रचने का प्रयास कर ।'
संयुक्ता ने उपाध्यायी को प्रणाम किया और 'काम मोहितम्, काम मोहितम्' गुनगुनाते हुए उठ पड़ी। उसके मन में विचार उठा कि काम के प्रभाव के बारे में उपाध्यायी से प्रश्न करे। पर यह विचार आते ही उसका मुख मण्डल आरक्त हो उठा और सहज सलज्ज मुस्कान बिखेरती वह चल पड़ी, 'काम मोहितम्' गुनगुनाती हुई ।
2. यज्ञ
तीसरा प्रहर । कान्यकुब्ज नरेश जयचन्द्र चिन्तामग्न अपने कक्ष में बैठे हैं । प्रातः राजमहिषी ने कारण जानना चाहा पर महाराज मौन साध गए। सामने खुले मैदान से संयुक्ता को घोड़ी पर चढ़ते देख उनके मुख मण्डल पर थोड़ी प्रसन्नता झलकी। तभी महामात्य विद्याधर आ गए। महाराज ने उन्हें अपने कक्ष में ही बुलवा लिया। अपनी व्यथा का मर्म समझाते हुए महाराज ने कहा, 'साँभर नरेश के बढ़ते प्रभाव से मुझे चिन्ता हो रही है।'
'पर उनकी दृष्टि कान्यकुब्ज पर नहीं है महाराज' विद्याधर ने संकेत किया ।
'समझने का प्रयास करें महामात्य । कान्यकुब्ज की ओर दृष्टि घुमाने का साहस कोई नहीं कर सकता। पर जनमानस में चाहमान का बढ़ता सम्मान मेरी चिन्ता का कारण है ।'
'महाराज, उन्होंने भाण्डानकों को पराजित किया। चन्देलों पर विजय पाई । चालुक्य परास्त हुए। शहाबुद्दीन गोरी को तराइन के मैदान में धूल चटा दी। भटिन्डा खाली करा लिया। जनमानस इससे प्रभावित तो होगा ही । '
'और आप भी उससे प्रभावित हैं...।'
'महाराज, वे आपका सम्मान करते हैं। मैं आपका सेवक हूँ। आपकी बराबरी कौन कर सकता है?' कहते हुए महामात्य ने पूरा एक श्लोक प्रशस्ति में पढ़ दिया। महाराज के ओंठों पर एक क्षण के लिए मुस्कान थिरक उठी ।
वे कह उठे 'कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा महामात्य ।'
'आदेश करें। करणीय अवश्य होगा ।'
"यही तो विचार करना है।'
'कान्यकुब्ज की मेधा के लिए हल निकालना कठिन नहीं है महाराज।'
'मैं यज्ञ करना चाहता हूँ ।"
'उत्तम विचार है। पर यज्ञ तो...।'
'राजसूय यज्ञ ।'
महामात्य के मस्तक पर स्वेदजल झलक उठे। 'महाराज यह समय ....।'
'राजसूय यज्ञ का नहीं है, यही कहना चाहते हो न ।'
'हाँ महाराज।'
'क्यों?'
'स्थितियाँ बहुत अनुकूल नहीं हैं, महाराज.....। मेरी छोटी बुद्धि जिस स्तर पर विचार कर सकी ।'
'अभी श्लोक में प्रशस्तिगान कर रहे थे और अब.......I'
'प्रशस्ति करना दूसरी बात है महाराज।.......क्षमा करें।
साँभर नरेश जैसे भूपति अधीनता स्वीकार करेंगे ऐसा मुझे नहीं लगता।'
'स्वेच्छा से अधीनता कौन स्वीकार करता है । अधीनता तो स्वीकार करानी पड़ती है।'
'यही तो कठिन है महाराज......।'
'कठिन को सरल बनाने के लिए ही विमर्श किया जाता है.......।’
'पर विमर्श ......केवल विमर्श से कार्य कहाँ होता है?..... उसके लिए ठोस कदम उठाना पड़ता है।'
'हमारा विशाल सैन्य बल कब काम आएगा मंत्रिवर?"
'महाराज, भगवान राम ने राजसूय यज्ञ का प्रस्ताव रखा था तो भरत जी ने उसकी भयावहता का संकेत करते हुए बताया था-
स त्वमेवंविधं यज्ञ माहर्तासि कथं नृप ।
पृथिव्यां राजवंशानां विनाशो यत्र दृश्यते ।
'नरेश्वर ! आप ऐसा यज्ञ कैसे कर सकते हैं जिसमें भूमंडल के समस्त राजवंशों का विनाश दिखाई देता है? इसलिए महाराज मैं बार बार आपसे निवेदन कर रहा हूँ।' ' पर युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया था न ?”
‘हाँ महाराज!” महामात्य को लगा कि महाराज यज्ञ कराने का मन बना चुके हैं। उन्होंने तर्क का तेवर छोड़ सहमति का ही बिम्ब उभारा, 'महाराज कार्य कठिन अवश्य है पर आपका प्रताप हर कठिनाई को मसल कर रख देता है।' महाराज मुस्करा उठे। बोले, 'संजू को देख रहे हो न?"
'हाँ महाराज ।'
‘उसके लिए वर……………….। मैं सोचता हूँ राजसूय के साथ उसका स्वयंवर भी......।' 'उचित ही होगा महाराज।'
महाराज उठे, उन्हीं के साथ आमात्य भी । महाराज शुभा के अन्तःपुर की ओर बढ़ गए। चर्चा में राजसूय की अपेक्षा स्वयंवर ने महारानी को अधिक प्रभावित किया। वे विदुषी थीं। साहित्य, संगीत, नृत्य उनके प्रिय विषय थे। उत्सव का अवसर देख उन्हें प्रसन्नता हुई, पर राजसूय की विकट संभावनाओं से वे अपरिचित नहीं थीं । महाराज से उन्होंने इसकी चर्चा भी की पर उनकी इच्छा को देखते हुए उन्होंने विपक्ष में कुछ कहना उचित नहीं समझा। अपनी सहमति ही जताई।
दूसरे दिन प्रातः सभा में महाराज के इंगित पर मंत्रिवर विद्याधर ने विचार विमर्श हेतु प्रस्ताव रखा। राजसूय का नाम आते ही बन्दीजन ले उड़े। उन्होंने दलपंगु महाराज जयचन्द्र से आज्ञा ले विरुद बखानना प्रारंभ कर दिया। श्री कंठ पुरोहित, वीरम, मुकुन्द परिहार, वनसिंह, वनवीर, महादेव, बलभद्र, पहाड़राय सभी मुँह ताकते रह गए। कन्ह कमध्वज और सहसमल कुछ कठिनाइयों की ओर संकेत करना चाहते थे पर विरुदावली के सामने किसी प्रकार की अन्य चर्चा असंगत लगी। रावण तातार खाँ, जमाल, पीर खाँ, जैसे सेनानायक युद्ध की स्थिति को अपनी प्रगति के लिए हितकर समझ पक्ष में ही अपना मत व्यक्त करते रहे। महाराज की इच्छा के अनुरूप सभा का पूरा परिवेश पक्ष का ही बन गया। इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका बन्दी जनों की थी । महाराज भी बहुत सूक्ष्म बिन्दुओं पर अपनी दृष्टि रखते थे। बन्दी जनों का सभा में उपयोग उन्हें अच्छा लगा। कठिनाई के समय चतुराई से इनका उपयोग किया जा सकता है, उन्होंने ग्रहण किया। महाराज अत्यन्त बुद्धिमान थे। स्थितियों का आकलन आसानी से कर लेते थे। उनका मुख मण्डल दमक उठा। विरुद का प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा था। श्रीकंठ के श्लोक पाठ से सभा विसर्जित हुई।
राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान एक निर्धारित प्रक्रिया के अन्तर्गत होता है। सभी सेवाकार्य प्रायः राजाओं, राजपरिवारों से ही कराया जाता है । इसीलिए राजाओं को निमंत्रित करने की कार्यवाही प्रारंभ की गई।
कान्यकुब्ज ने महाराज हर्ष के समय का वैभव देखा है। महाराज जयचन्द्र की शक्ति भी कम नहीं है। उनके अधिकार में एक विशाल भूभाग है। सम्पूर्ण गाँजर क्षेत्र उन्हीं का करद है। नरेशों का एक बड़ा वर्ग उन्हें अपना संरक्षक मानता है । बंगभूमि के पालों तथा शाकम्भरी चाहमानों से उनकी सीमाएँ लगती हैं। सीमाओं पर संघर्ष की स्थिति बनती रहती। चन्देल यद्यपि चाहमानों से पराजित हुए थे पर उनका अस्तित्व बना हुआ था। सदियों से कान्यकुब्ज पर गहड़वालों का शासन नगरवासियों की समृद्धि में सहायक बना। घरों की सज्जा देखकर नागरिकों की सम्पन्नता का आभास मिलता । मंदिरों के स्वर्ण कलश जगमगाते रहते । सायंकाल काली, फूलमती, सिंहभवानी, गौरी शंकर मंदिरों में भीड़ जुटती । पंडित और विद्वज्जन वार्त्ताओं में रस लेते। कीर्तन करने वाले ढोल मँजीरा, झाँझ बजाते कीर्तन कर मग्न होते। उत्सवों और पर्वों पर नगरी की शोभा देखने लायक होती। अनेक शिल्पजीवियों को काम मिल जाता। जगह जगह उद्यान नगरी की शोभा बढ़ाते । प्रातः एवं सायं गंगा तट पर लोग स्नान, पूजा, अर्चना करते । वेदपाठी ऋचाओं का सस्वर पाठ करते । कथा वाचक कथाओं के माध्यम से नगरजनों का मनोरंजन करते। नाट्यदल नाटकों का प्रदर्शन करते । कान्यकुब्ज वास्तव में उत्सव नगरी का रूप धारण कर लेती।
शिशिर का अन्त होते वासन्ती बयार का झोंका लोगों के मन में हिलोर पैदा कर देता। कँपाने वाली ठंड जा चुकी थी। गुलाबी ठंड में लोग फागुन गाते, चौताल डेढ़ ताल का आनन्द उठाते। देर रात तक कार्यक्रम होते। पण्यशालाओं में विविध सामग्रियों का क्रय विक्रय होता । नगर में राजकर्मियों एवं सैनिकों की संख्या अधिक होती। विभिन्न जाति एवं धर्म के लोग सैन्य बल में भरती होते । कान्य कुब्ज के सैन्य बल में यवन एवं तुर्क बल भी अधिक था । कृषि, पशुपालन, शिल्प, सेवा एवं सैन्य कर्म ही जीविका के प्रमुख साधन थे ।
राजसूय यज्ञ की उद्घोषणा होते ही वीथियों, चतुष्पथों में चर्चा होने लगी । विमर्श करने के लिए सामान्य जन को एक प्रकरण मिल गया था। दो चार व्यक्ति मिल जाते। यज्ञ की कार्यविधि, उपयोगिता पर चर्चा शुरू हो जाती । बहुतों को काम मिलने की संभावना दिख रही थी । गुणज्ञ, कुशलकर्मी भागकर कान्यकुब्ज आने लगे थे। ज्योतिषी, पंडित, शिल्पकार, सेवक सभी कान्यकुब्ज में कुछ कमा लेने की आशा से आ रहे थे। भीड़ बढ़ती जा रही थी। कभी कभी नगरवासियों एवं बाहरी लोगों के बीच भेद करना कठिन हो जाता। सूचनाओं के आदान प्रदान हेतु हरकारे भाग रहे थे । याचकों के दल भी गाते बजाते नगरवासियों का मनोरंजन करते । सूचनाओं के पंख पकड़ लाभ उठा लेने वाले सक्रिय हो गए थे। वे सूचनाओं की उपयोगिता का दोहन करते ।
प्रातः का समय था, बालार्क की सुनहली रश्मियाँ धरा को जगमगाने लगीं। पक्षि शावक कुलबुलाकर चुप हो गए। संयुक्ता अश्विनी पर सवार हो प्रातः का आनन्द ले रही थी। पीछे पीछे कारु दूसरी घोड़ी पर चल रही थी। संयुक्ता ने चलते चलते घोड़ी को एड़ लगाई। हाथ से कारु को भी संकेत किया। उसने भी एड़ लगा दी। दोनों हवा से बातें करने लगीं। कुछ दूर निकलने पर संयुक्ता ने घोड़ी को रोका। कारु भी पीछे रुक गई। अश्वारोही, जिन्हें सुरक्षा के लिए रखा गया था, भी दूरी बनाकर रुक गए। निकट ही कुछ कुम्हारों के घर थे । घरों के आगे चाक पर वे कुल्हड़ बना रहे थे । राजपुत्री चाकों का घूमना देखती रहीं ।
'हाथों की कला देख रही हो?" राजपुत्री ने कारु से कहा ।
'अति उत्तम है, रानी जू' कारु हुलस उठी ।
'तुम भी बना सकती हो?" राजपुत्री बोल पड़ीं।
'इसके लिए भी कुशलता चाहिए, रानी जू । बिना अभ्यास के....।' कारु रुक गई।
'समझ गई । तुझे सेवा का प्रशिक्षण मिला है। वहीं अच्छा कर सकती है... उत्तमोत्तम ।'
'आप की कृपा है', कहती कारु की दृष्टि धरती पर गड़ गई। कुम्हारों ने भी रानी जू को देखा। एक बलिष्ठ बालिका ने आकर रानी जू को प्रणाम किया।
'तुम भी यह काम कर लेती हो?"
“हाँ स्वामिनी, घर के सभी सदस्य काम कर लेते हैं। पीढ़ियों से हमारे घर में यही कार्य होता आया है।'
'बहुत अच्छा', कहकर संयुक्ता ने उसकी आँखों में झाँका। दोनों हँस पड़ीं। राजपुत्री वामी पर सवार हुई। बालिका ने हाथ जोड़ लिए। घर की ओर मुड़ते ही वामी ने गति पकड़ ली। पीछे-पीछे कारु और अश्वारोही भी ।
"बालिका सहज, सुन्दर और कितनी बलिष्ट ?"
‘हाँ स्वामिनी, शरीर श्रम करने वाली बालिका है न?"
'उसके उन्नत उरोजों को देखा?",
" दृष्टि पड़ गई थी स्वामिनी ।'
'दृष्टि पड़नी ही थी.....ऐसे उन्नत उरोज । '
'बलिष्ठ बालिकाओं के उरोज भी...।'
'तू कितनी गुणज्ञ हैं कारु......।’
"आपकी कृपा है, रानी जू ।'
राजपुत्री के एड़ लगाते ही घोड़ी उड़ चली। कुछ ही क्षणों में रानी जू के आवास के सम्मुख घोड़ी खड़ी हो गई । कारु अपनी घोड़ी से उतर पड़ी। राजपुत्री भी उतरीं। सेवक दोनों वामियों की रास पकड़ चल पड़ा।
रानी जू सीधे जाकर दर्पण के सामने खड़ी हो गईं। अपने उरोजों को देर तक देखती रहीं। कारु जैसे आकर खड़ी हो हुई, उसकी छाया भी दर्पण में दिखी। उसके उभरे हुए उरोजों को देखकर रानी जू पलट पड़ीं।
'तेरे उरोज भी कितने मोहक हैं कारु?"
"आपकी कृपा है, रानी जू ।'
'तेरी बलखाती कटि, बिम्बाफल से ओठ, शुक सी नासिका, श्रीफल से उरोज, धवल दंतपक्ति, सर्पिणी सी वेणी, सब कुछ मेरी ही कृपा है न?"
'हाँ, रानी जू......आपकी ही....।' कहते कहते रुक गई ।
'कहो, कहो, रुक क्यों गई? यह भी कहो कि मेरी कृपा न होती तो तेरा जन्म ही न होता ।'
'सच है, रानी जू । मेरा पुनर्जन्म हुआ है आपकी ही कृपा से ।' 'मेरी कृपा से पुनर्जन्म?"
'इतनी शक्ति मुझमें होती', कहकर रानी जू हँस पड़ी । 'आपमें शक्ति है, रानी जू ।'
'मुझमें!'
'हाँ, स्वामिनी ।'
'बुझौवल न बुझा। मेरी बुद्धि में कुछ धँस नहीं रहा है। स्पष्ट बता ।'
‘बताऊँगी, स्वामिनी....आप थोड़ा विश्राम कर लें' कहते हुए कारु की आँखों से अश्रु की दो बूँदें उसके उरोजों पर ढरक गईं।
'तुम दुःखी क्यों हो उठी, कारु? क्या मैंने तुम्हें कोई कष्ट पहुँचाया?'
'नहीं, रानी जू। यही मेरी नियति है । सुख में भी आँसू ढरक जाते हैं ।'